सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश ने देशभर में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। कोर्ट ने साफ तौर पर निर्देश दिया है कि आवारा कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण के बाद उन्हें वहीं छोड़ा जाए, जहाँ से उन्हें पकड़ा गया था। इस फैसले को पशु अधिकारों के समर्थन में एक बड़ा कदम माना जा रहा है, लेकिन इसके साथ ही यह आम जनता, विशेष रूप से बच्चों और बुजुर्गों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल भी खड़े करता है।
यह फैसला संविधान में पशुओं के लिए दिए गए अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक सराहनीय पहल माना जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किसी जीव को उसकी प्राकृतिक जगह से हटाना या उसे "खतरा" मानकर हमेशा के लिए अलग कर देना, संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। लेकिन इस मानवीय सोच के बीच आम नागरिकों की व्यावहारिक चिंताओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
देश के कई हिस्सों में आवारा कुत्तों के काटने की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। छोटे बच्चे, बुज़ुर्ग, और राह चलते लोग इन हमलों का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में स्थानीय प्रशासन पर अब यह बड़ी ज़िम्मेदारी है कि कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए नसबंदी और टीकाकरण की प्रक्रिया को तेज़, पारदर्शी और प्रभावी बनाए। साथ ही, यह सुनिश्चित करना भी उतना ही ज़रूरी है कि जिन इलाकों में कुत्तों को वापस छोड़ा जा रहा है, वहाँ उनकी निगरानी और नियंत्रण की पुख्ता व्यवस्था हो।
यह मामला शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चिंता का विषय है, जहाँ एक ओर लोग खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पशु प्रेमी वर्ग इस फैसले को एक नैतिक जीत के रूप में देख रहा है। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश प्रशासनिक अमले के लिए एक कड़ा इम्तिहान साबित हो सकता है, क्योंकि इसका सीधा असर ज़मीन पर दिखाई देगा — खासकर वहाँ, जहाँ लोग पहले ही डर के साए में जी रहे हैं।
इस पूरे मुद्दे पर अब देश की निगाह स्थानीय निकायों, नगर निगमों और राज्य सरकारों की कार्यशैली पर टिक गई है। क्या वे कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए आम जनता और जानवरों दोनों के हितों का संतुलन बना पाएंगे? या यह फैसला केवल कागज़ों तक सीमित रह जाएगा — इसका जवाब आने वाले कुछ हफ्तों में सामने आएगा।
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