उत्तराखंड की ऊँची-नीची पहाड़ियों और घाटियों में इन दिनों जो झीलें बन रही हैं, वे प्राकृतिक सुंदरता नहीं बल्कि एक नए संकट का संकेत बन चुकी हैं। लगातार बदलते मौसम, बर्फबारी और ग्लेशियरों के पिघलने से कई स्थानों पर ऐसी झीलें बन रही हैं जिनका जल स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है। इन झीलों की स्थिति अब इतनी अस्थिर हो चुकी है कि वे किसी भी समय फट सकती हैं, जिससे नीचे बसे गांव और कस्बे भारी तबाही का शिकार हो सकते हैं। वैज्ञानिकों और SDRF की टीमें लगातार सर्वेक्षण कर रही हैं और समय-समय पर चेतावनी भी जारी कर चुकी हैं, लेकिन शासन-प्रशासन की सुस्ती एक बड़े खतरे को दावत दे रही है।
जहां एक तरफ तकनीकी विशेषज्ञ और आपदा राहत दल इन झीलों की स्थिति को ‘अलार्मिंग’ बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर स्थानीय लोगों की अपनी चिंताएं हैं। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले किसान और परिवार अपनी ज़मीन, घर और परंपराओं को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि वे पीढ़ियों से वहाँ रहते आए हैं और उन्हें हटाना "बहानेबाज़ी" या "अनावश्यक डर" का हिस्सा है। लेकिन ये जिद आने वाले समय में जानलेवा साबित हो सकती है।
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को आज भी देश नहीं भूला है। उस त्रासदी में सैकड़ों लोगों की जान गई थी और हजारों घर उजड़ गए थे। तब भी वैज्ञानिकों ने समय रहते चेतावनी दी थी, लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। आज वही चूक दोहराई जा रही है। SDRF और पर्यावरण वैज्ञानिकों ने यह साफ तौर पर कहा है कि अगर इन झीलों का उचित प्रबंधन और निकासी प्रणाली नहीं बनाई गई, तो एक और प्राकृतिक आपदा उत्तराखंड को हिला सकती है।
यह स्थिति केवल एक राज्य की नहीं, बल्कि पूरे हिमालयी क्षेत्र के लिए एक चेतावनी है। जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित निर्माण कार्य और अवैज्ञानिक विकास मॉडल इन झीलों के बनने और खतरे को और बढ़ा रहे हैं। राज्य सरकार पर यह जिम्मेदारी है कि वह न केवल सतर्कता बरते, बल्कि ठोस और तेज़ कदम उठाए। साथ ही, स्थानीय लोगों को भी यह समझने की ज़रूरत है कि कभी-कभी एक कदम पीछे हटना, भविष्य के लिए जीवन बचाने का रास्ता हो सकता है।
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